गज़ल
.जव भी मै रोना चाहता हूँ,
अकेले में होना चाहाता हूँ।
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शब्दों से भी खेलुँ कभी कुछ,
उन को नहि खोना चाहता हूँ।
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ऐ रस्मों रिवाज़ ऐ जिन्दगी,
खफा ही मै रहना चाहता हूँ।
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अब तो थक भी चूका हूँ मै,
यूँ ही रोना धोना चाहाता हूँ।
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आए दृष्टि में प्रेम् तेरा कभी,
केश् तले मै सोना चाहता हूँ।
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अब और न तोड ऐ 'जीवन'
दिल् में सिर्फ़ कोना चाहाता हूँ।
©विष्णु शर्मा (भिक्षु जीवन)
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