Friday, January 19, 2018

कविता

कविता

हे रजनी,

मुझे कवि बना दे तू
शुभ्रा! तेरा केश विन्यास
निशा का अट्टहास
विचारों में विचक्षण
अनाम स्पन्दन
मेरे हृदय को
विचलीत कर जाती है
जो होता है निशा में,
शब्द भी किञ्चित
सन्त्रास या प्यास क्या?
क्यों मेरे पद चाप
स्वतःबढ जातें हैं
ध्वनी को पाने

जब रहूँ निराश
शर्वरी नें अनिद्रीत
प्रतिक्षित उषा का
भोग से वञ्चित रहू
हे धरित्री क्या है?
शयद न्याय तेरा
जब अट्टहास करे
निशाचर मुझे बना
हृदय में  अनल
वयु से शित योग
व्यामोहीत मन में
स्फुल्ल नभ दिखे
नक्षत्रों से वेष्टित
कृष्णचन्द्र
.
कामोद्दिप्त राग
ब्यामोहित मन से
हतचित्त हो जब
अकुञ्चित हृदय में
अप्रविष्ट स्मृतियां
विस्तार लेने लगें
झिंझोडना पडता है
अकिञ्चन बन
पीडाओं कॊ क्यों
प्रसारित न करूँ?

तब निद्रा अबगुण्ठीत हो
अपने हृदय में रख
विश्राम देना
विश्रान्ति से
प्रफुल्लित
स्वच्छन्द
मुक्ताकाश में
विलय के लिए
उपस्थिती रहेगी।

©विष्णु शर्मा (भिक्षु जीवन) 

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